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चम्बा , 14 जनवरी [ शिवानी ] ! अपने देश में लोहड़ी का त्यौहार बड़ी ही श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। परन्तु वही मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व चम्बा में मनाई जानें बाली लोहड़ी अपनें में अनुठी है। सदियों से राजाओं के कार्य काल से चम्बा रियासत को वसाया था। परन्तु इससे पहले ब्रह्मपुरा के नाम से जानी जाती थी। दसवी शताब्दी में भरमौर से आए राजा साहिल वर्मन नें चम्बा आकर चम्बा रियासत को बसाया। माना जाता है कि चम्बा आनें पर रियासत तो राजाओं ने बसा दी परन्तु यहां भूत प्रेतों का अधिकतर वास होने के कारण रियासत के लोग बहुत परेशान थे तथा इससे मुक्ति पानें चम्बा के राजा नें पूरे शहर में शांति व्यवस्था वनाए रखनें के लिए अलग अलग मढियों की स्थापनत कर दी जो शहर के हर मुहल्ले में थी। एक महीने तक लगातार इन मढियों में अलाव जला कर इसकी देख रेख मुहल्ले में बसे सभी बूढे और वच्चे करते थे तथा अन्तिम दिन शिवजी का प्रतीक मानें जानें वाली राज मढी से निकाला जानें वाला त्रिशूल नुमा मुशहरा (मशाल) जिसे स्थानीय भाषा में राज मुशहरा कहतें हैं लोगों द्वारा निकाला जाता है। ऐसा करनें से भूत-प्रेतों से वासत्व में मुक्ति मिली। सैंकडो वर्ष से चली आ रही यह अदभुत प्रथा जिसे आज भी स्थानीय चम्बा के लोग बड़ी धूम-धाम से मनाते चले आ रहे हैं। सबसे पहले मुहल्ला सुराड़ा के भगवान शिव के मन्दिर में लकड़ी से एक त्रिशूल नुमा मशाल यानी मुशाहरा बनाया जाता है इसकी विधिवत तरीके से पूजा कर बैंड बाजे के साथ मढ़ियों में घूमने की तैयारी की जाती है। पास के चौन्तड़ा मुहल्ला में भी इसी तरह का एक और मशाहरा तैयार किया जाता है जो बजीर के नाम से जाना जाता है रात ठीक ग्यारह बजे राज मुशाहरे को कई लोग अपने कंधे पर उठा आगे के लिए चल पड़ते हैं। दूसरी तरफ से बजीर मढ़ी से भी मुशहरा चल पड़ता है और एक जगह पर इन दोनों का मिलन करवाया जाता है जहां पर लोग खूब शोरशराबा मचाते हैं बाद में बजीर वापिस अपनी मढ़ी में चला जाता है जाता है और राज मुशाहरा पुरे शहर की मढ़ियों में घुमाया जाता है जिसे चम्बा की शुख और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है चम्बा में इस तरह की अनोखी लोहड़ी अपने में एक अलग ही इतिहास को दर्शाती है। ऐतिहासिक चम्बा शहर का इतिहास सदियों पुराना है तथा यहां मनाऐ जाने वाले हर पर्व की अपनी अलग ही पहचान है। विशेष कर लोहडी की बात की जा तो चम्बा की लोहड़ी वासत्व में प्राचीन होनें कें साथ ही साथ यह महता भी रखती है कि इस त्योहार में चम्बा के सभी लोग इसमें आपनी सहभागिता निभातें हैं जानकार मानते हें कि 1000 वर्ष से भी पुरानी इस ऐतिहासिक लोहड़ी की खास विशेषता यह भी है कि शहर के बीचोबीच 14 मढियों की स्थापना राजाओं नें करवाई थी। जिसमे सात पूरुष वर्- की गणना में थी तो वही सात मढियां महिला बर्ग में आती थी तथा सात पुरुष वर्ग मढियों से रात्रि के ग्यारह बजे सात मुशाहरे उठाते थे जो महिला वर्ग में बनी मढियों में अपना-अपना मुशहरा जलाते थे जिसमें काफी लडाई झगडा हुआ करता था पर इसके बावजूद मुशहरा जलाने के बाद प्यार भी उतना ही बढ जाता था। जानकार यह यह भी मानते हैं की इसमें पहले पशु बलि का भी प्रचलन था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद यहां नारियल को तोड़ यह पर्व मनाया जाता है। जानकारी के अनुसार राजाओं द्वारा चम्बा शहर जब बसाया गया तो उसे समय यहां भूत प्रेतों का वास हुआ करता था। दैत्य शहर के लोगों को मार दिया करते थे इस बात से परेशान हो राजा ने बाहर के राज्यों से तांत्रिक को बुलाया। तांत्रिकों ने यह उपाय बताया कि भूत प्रेतों को हर हफ्ते किसी एक की नरबलि दी जाए लेकिन इसके लिए कोई भी तैयार नहीं हो रहा था राजा ने फिर एक बार इस समस्या के हाल के लिए विद्वानों को बुलाया विद्वानों ने के अनुसार यह तय किया गया कि हर साल यहां राक्षसों को मनुष्य का खून दिया जाएगा और इसके लिए उन्होंने लोहड़ी पर्व को कुछ अलग तरीके से मनाने का फैसला किया। शहर में 14 मोहल्लों में अलग-अलग मढ़ियाँ स्थापित की गई जिन में 7 मेल और 7 फीमेल मडिया बनाई गई। मोहल्ला सुराडा से एक मिसाल जिसे लोकल भाषा में मुशाहरा कहा जाता है उसे तैयार किया जाता है जिसे राज मुशायरा और दूसरी तरफ चौंतड़ा मोहल्ला में एक और मिसाल तैयार की जाती है जिसे वजीर नाम दिया जाता है। दोनों को एक जगह पर टकराया जाता है बाद में राज मुशायरा को पूरे शहर का चक्कर लगाया जाता है जहां पर सभी मढ़ियों में उसे डुबोया जाता है। स्थानीय लोगों ने बताया कि जब यह राज मुशायरा दूसरों की मढ़ियों में डुबाया जाता है वहां जदोजहद में काफी लोग चोटिल होते हैं और वह जो चोटिल लोगों से खून निकलता है वहीं राक्षक को दिया जाता है और इससे पूरा साल शहर में सुख और समृद्धि मानी जाती है।
चम्बा , 14 जनवरी [ शिवानी ] ! अपने देश में लोहड़ी का त्यौहार बड़ी ही श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। परन्तु वही मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व चम्बा में मनाई जानें बाली लोहड़ी अपनें में अनुठी है। सदियों से राजाओं के कार्य काल से चम्बा रियासत को वसाया था। परन्तु इससे पहले ब्रह्मपुरा के नाम से जानी जाती थी।
दसवी शताब्दी में भरमौर से आए राजा साहिल वर्मन नें चम्बा आकर चम्बा रियासत को बसाया। माना जाता है कि चम्बा आनें पर रियासत तो राजाओं ने बसा दी परन्तु यहां भूत प्रेतों का अधिकतर वास होने के कारण रियासत के लोग बहुत परेशान थे तथा इससे मुक्ति पानें चम्बा के राजा नें पूरे शहर में शांति व्यवस्था वनाए रखनें के लिए अलग अलग मढियों की स्थापनत कर दी जो शहर के हर मुहल्ले में थी।
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एक महीने तक लगातार इन मढियों में अलाव जला कर इसकी देख रेख मुहल्ले में बसे सभी बूढे और वच्चे करते थे तथा अन्तिम दिन शिवजी का प्रतीक मानें जानें वाली राज मढी से निकाला जानें वाला त्रिशूल नुमा मुशहरा (मशाल) जिसे स्थानीय भाषा में राज मुशहरा कहतें हैं लोगों द्वारा निकाला जाता है। ऐसा करनें से भूत-प्रेतों से वासत्व में मुक्ति मिली।
सैंकडो वर्ष से चली आ रही यह अदभुत प्रथा जिसे आज भी स्थानीय चम्बा के लोग बड़ी धूम-धाम से मनाते चले आ रहे हैं। सबसे पहले मुहल्ला सुराड़ा के भगवान शिव के मन्दिर में लकड़ी से एक त्रिशूल नुमा मशाल यानी मुशाहरा बनाया जाता है इसकी विधिवत तरीके से पूजा कर बैंड बाजे के साथ मढ़ियों में घूमने की तैयारी की जाती है। पास के चौन्तड़ा मुहल्ला में भी इसी तरह का एक और मशाहरा तैयार किया जाता है जो बजीर के नाम से जाना जाता है रात ठीक ग्यारह बजे राज मुशाहरे को कई लोग अपने कंधे पर उठा आगे के लिए चल पड़ते हैं।
दूसरी तरफ से बजीर मढ़ी से भी मुशहरा चल पड़ता है और एक जगह पर इन दोनों का मिलन करवाया जाता है जहां पर लोग खूब शोरशराबा मचाते हैं बाद में बजीर वापिस अपनी मढ़ी में चला जाता है जाता है और राज मुशाहरा पुरे शहर की मढ़ियों में घुमाया जाता है जिसे चम्बा की शुख और समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है चम्बा में इस तरह की अनोखी लोहड़ी अपने में एक अलग ही इतिहास को दर्शाती है।
ऐतिहासिक चम्बा शहर का इतिहास सदियों पुराना है तथा यहां मनाऐ जाने वाले हर पर्व की अपनी अलग ही पहचान है। विशेष कर लोहडी की बात की जा तो चम्बा की लोहड़ी वासत्व में प्राचीन होनें कें साथ ही साथ यह महता भी रखती है कि इस त्योहार में चम्बा के सभी लोग इसमें आपनी सहभागिता निभातें हैं जानकार मानते हें कि 1000 वर्ष से भी पुरानी इस ऐतिहासिक लोहड़ी की खास विशेषता यह भी है कि शहर के बीचोबीच 14 मढियों की स्थापना राजाओं नें करवाई थी।
जिसमे सात पूरुष वर्- की गणना में थी तो वही सात मढियां महिला बर्ग में आती थी तथा सात पुरुष वर्ग मढियों से रात्रि के ग्यारह बजे सात मुशाहरे उठाते थे जो महिला वर्ग में बनी मढियों में अपना-अपना मुशहरा जलाते थे जिसमें काफी लडाई झगडा हुआ करता था पर इसके बावजूद मुशहरा जलाने के बाद प्यार भी उतना ही बढ जाता था। जानकार यह यह भी मानते हैं की इसमें पहले पशु बलि का भी प्रचलन था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद यहां नारियल को तोड़ यह पर्व मनाया जाता है।
जानकारी के अनुसार राजाओं द्वारा चम्बा शहर जब बसाया गया तो उसे समय यहां भूत प्रेतों का वास हुआ करता था। दैत्य शहर के लोगों को मार दिया करते थे इस बात से परेशान हो राजा ने बाहर के राज्यों से तांत्रिक को बुलाया। तांत्रिकों ने यह उपाय बताया कि भूत प्रेतों को हर हफ्ते किसी एक की नरबलि दी जाए लेकिन इसके लिए कोई भी तैयार नहीं हो रहा था राजा ने फिर एक बार इस समस्या के हाल के लिए विद्वानों को बुलाया विद्वानों ने के अनुसार यह तय किया गया कि हर साल यहां राक्षसों को मनुष्य का खून दिया जाएगा और इसके लिए उन्होंने लोहड़ी पर्व को कुछ अलग तरीके से मनाने का फैसला किया।
शहर में 14 मोहल्लों में अलग-अलग मढ़ियाँ स्थापित की गई जिन में 7 मेल और 7 फीमेल मडिया बनाई गई। मोहल्ला सुराडा से एक मिसाल जिसे लोकल भाषा में मुशाहरा कहा जाता है उसे तैयार किया जाता है जिसे राज मुशायरा और दूसरी तरफ चौंतड़ा मोहल्ला में एक और मिसाल तैयार की जाती है जिसे वजीर नाम दिया जाता है। दोनों को एक जगह पर टकराया जाता है बाद में राज मुशायरा को पूरे शहर का चक्कर लगाया जाता है जहां पर सभी मढ़ियों में उसे डुबोया जाता है।
स्थानीय लोगों ने बताया कि जब यह राज मुशायरा दूसरों की मढ़ियों में डुबाया जाता है वहां जदोजहद में काफी लोग चोटिल होते हैं और वह जो चोटिल लोगों से खून निकलता है वहीं राक्षक को दिया जाता है और इससे पूरा साल शहर में सुख और समृद्धि मानी जाती है।
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