प्रसिद्ध समाज सेवी एवं आनर आंफमेलबर्न ग्रुप आस्ट्रेलिया की मनीषा चौहान ने किया मेले का समापन ।।
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सिरमौर , 17 जून ! राजगढ़ विकास खंड के साथ लगते रितेश क्षेत्र का ऐतिहासिक धार्मिक एवं पारंपरिक दो दिवसीय जात मेला गलैणी संपन हो गया । क्षेत्र के प्रसिद्ध आराध्य देवी जलेश्वरी माता टियाली के नाम पर लगने वाले इस मेले का समापन प्रसिद्व समाज सेवी आनर आंफमेलबर्न ग्रुप आस्ट्रेलिया की मनीषा चौहान ने किया इस मेले का शुभारंभ माता की पारंपरिक पूजा जिसे स्थानीय भाषा में पांची कहते हैं के साथ हुआ किया गया, पांची के समय देव वाद्ययंत्रों के साथ विशेष मंगल धून बंजती है । इसके बाद मेले का विधिवत शुभारंभ सुचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग के संयुक्त निदेशक अनिल सेमवाल द्वारा किया गया । मेले का मुख्य आकर्षण महाभारत कालीन युद्व कौशल का खेल ठोड़ा रहा इस खेल में दो दल भाग लेते है और एक दूसरे की टांगो पर तीर कमान से वार करते है । ठोड़ा खेलने वाले इन दलो को खू़ंद कहा जाता है । मेला समिति के अध्यक्ष लायक राम शर्मा के अनुसार इस बार इस मेले मे ठौड़ा खेल का प्रर्दशन ठौड़ा दल बतीऊड़ा व ठौडा़ दल सुजड़ा के बीच किया गया इसके साथ साथ मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन लोगो के मंनोरंजन के लिए किया गया था । रतेश क्षेत्र का यह मेला काफी प्राचीन है इस मेले में प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री डाक्टर वाई एस पर भी शिरकत कर चुके है । यहां काबिले जिक्र है कि इन दिनों यहां पूरे क्षेत्र में बिशू मेलो का सीजन अपने योवन पर है पदम श्री एवं प्रसिद्ध साहित्यकार एवं लेखक विद्या नंद सरैक के अनुसार यहां पहाड़ी क्षेत्रो इन दिनों बिशू मेले का सीजन चला हुआ है । और यह बिशू मेले यहां कुल देवता ,ग्राम देवता के नाम पर लगते हैं । और इन मेलो का आयोजन कुछ स्थानों पर हर साल व कुछ स्थानो पर तीसरे साल होता है । और इन मेलो में ठौड़ा खेल का आयोजन अनिवार्य होता है । ऐसा ना करने पर देव दोष लगता है ऐसा माना जाता है । इस लिए हर मेले में ठौड़ा खेल का आयोजन होता है । जिन दो दलों के बीच यह खेल खेला जाता है उन्हें एक दल को शाठड़ व एक को पाशड़ कहा जाता है । शाठड़ दल के लोग अपने आपको कौरवों का वंशज व पाशड़ दल के लोग अपने आप को पांडवों का वंशज मानते हैं । और ठोड़ा खेल कभी भी पाशड़ पाशड़ व शाठड़ शाठड़ आपस में नहीं खेलते शाठड़ दल पाशड़ के साथ व पाशड़ दल शाठड़ के साथ ही ठोड़ा खेल खेलते हैं और इसके लिए विशेष तरह के परिधान होते हैं । इसके साथ साथ ठोड़ा दलों के रात्रि ठहराव की व्यवस्था को स्थानीय भाषा में ठीला कहा जाता है । इस व्यवस्था में एक दल जितने लोगों आते हैं उन्हें एक गांव के घरों में बांट दिया जाता है । और मेले में घर का मुखिया उपस्थित रहता है और वे उन्हें अपने घर ले जाता है। यानि अगर एक ठौड़ा दल में 70 लोग आये है और उस गांव में 12 घर है तो प्रत्येक घर में लगभग 6 व्यक्ति जाएंगे । कुछ स्थानों पर इनका भोजन का प्रबंध सामुहिक यानि एक स्थान पर होता है और कुछ स्थानों पर अलग अलग घरों में ही भोजन बनाया जाता है । उसके बाद रात्रि को सिरमौरी नाटी यानि महफ़िल सजती है । जिसमें सभी मिल जुल नृत्य करते हैं ।
सिरमौर , 17 जून ! राजगढ़ विकास खंड के साथ लगते रितेश क्षेत्र का ऐतिहासिक धार्मिक एवं पारंपरिक दो दिवसीय जात मेला गलैणी संपन हो गया । क्षेत्र के प्रसिद्ध आराध्य देवी जलेश्वरी माता टियाली के नाम पर लगने वाले इस मेले का समापन प्रसिद्व समाज सेवी आनर आंफमेलबर्न ग्रुप आस्ट्रेलिया की मनीषा चौहान ने किया इस मेले का शुभारंभ माता की पारंपरिक पूजा जिसे स्थानीय भाषा में पांची कहते हैं के साथ हुआ किया गया, पांची के समय देव वाद्ययंत्रों के साथ विशेष मंगल धून बंजती है । इसके बाद मेले का विधिवत शुभारंभ सुचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग के संयुक्त निदेशक अनिल सेमवाल द्वारा किया गया ।
मेले का मुख्य आकर्षण महाभारत कालीन युद्व कौशल का खेल ठोड़ा रहा इस खेल में दो दल भाग लेते है और एक दूसरे की टांगो पर तीर कमान से वार करते है । ठोड़ा खेलने वाले इन दलो को खू़ंद कहा जाता है । मेला समिति के अध्यक्ष लायक राम शर्मा के अनुसार इस बार इस मेले मे ठौड़ा खेल का प्रर्दशन ठौड़ा दल बतीऊड़ा व ठौडा़ दल सुजड़ा के बीच किया गया इसके साथ साथ मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन लोगो के मंनोरंजन के लिए किया गया था । रतेश क्षेत्र का यह मेला काफी प्राचीन है इस मेले में प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री डाक्टर वाई एस पर भी शिरकत कर चुके है ।
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यहां काबिले जिक्र है कि इन दिनों यहां पूरे क्षेत्र में बिशू मेलो का सीजन अपने योवन पर है पदम श्री एवं प्रसिद्ध साहित्यकार एवं लेखक विद्या नंद सरैक के अनुसार यहां पहाड़ी क्षेत्रो इन दिनों बिशू मेले का सीजन चला हुआ है । और यह बिशू मेले यहां कुल देवता ,ग्राम देवता के नाम पर लगते हैं । और इन मेलो का आयोजन कुछ स्थानों पर हर साल व कुछ स्थानो पर तीसरे साल होता है । और इन मेलो में ठौड़ा खेल का आयोजन अनिवार्य होता है । ऐसा ना करने पर देव दोष लगता है ऐसा माना जाता है । इस लिए हर मेले में ठौड़ा खेल का आयोजन होता है । जिन दो दलों के बीच यह खेल खेला जाता है उन्हें एक दल को शाठड़ व एक को पाशड़ कहा जाता है ।
शाठड़ दल के लोग अपने आपको कौरवों का वंशज व पाशड़ दल के लोग अपने आप को पांडवों का वंशज मानते हैं । और ठोड़ा खेल कभी भी पाशड़ पाशड़ व शाठड़ शाठड़ आपस में नहीं खेलते शाठड़ दल पाशड़ के साथ व पाशड़ दल शाठड़ के साथ ही ठोड़ा खेल खेलते हैं और इसके लिए विशेष तरह के परिधान होते हैं । इसके साथ साथ ठोड़ा दलों के रात्रि ठहराव की व्यवस्था को स्थानीय भाषा में ठीला कहा जाता है । इस व्यवस्था में एक दल जितने लोगों आते हैं उन्हें एक गांव के घरों में बांट दिया जाता है । और मेले में घर का मुखिया उपस्थित रहता है और वे उन्हें अपने घर ले जाता है।
यानि अगर एक ठौड़ा दल में 70 लोग आये है और उस गांव में 12 घर है तो प्रत्येक घर में लगभग 6 व्यक्ति जाएंगे । कुछ स्थानों पर इनका भोजन का प्रबंध सामुहिक यानि एक स्थान पर होता है और कुछ स्थानों पर अलग अलग घरों में ही भोजन बनाया जाता है । उसके बाद रात्रि को सिरमौरी नाटी यानि महफ़िल सजती है । जिसमें सभी मिल जुल नृत्य करते हैं ।
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