भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की अवधारणा और वर्तमान शिक्षा का स्वरूप – देवेंद्र धर !

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प्रतीकात्मक चित्र
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देश की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को समझना जरूरी है जो अपने विकास की प्रक्रिया में आधुनिक शिक्षा प्रणाली बनी और एक बार फिर नई शिक्षा नीति को जन्म दिया। शिक्षा प्रणाली का आधार समझने के लिए प्रारंभ से देश की शिक्षा व्यवस्था को देखना होगा। तभी हम बिना किसी आलोचना व प्रशंसा के वर्तमान शिक्षा प्रणाली के आधार को समझ सकते हैं व इसका आकलन कर सकते हैं। लार्ड मैकाले की शिक्षा प्रणाली मात्र कह कर आलोचना ही उचित नहीं होगा।

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भारतवर्ष को पुरातन काल से ही शिक्षा के क्षेत्र में विश्व गुरु के रूप में जाना जाता है। समस्त विश्व में भारत की शिक्षा प्रणाली सबसे पुरानी व विश्व मान्य है। ऐसा माना जाता है कि पुरातन शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप कहीं ना कहीं ऋग्वेद पर आधारित है जो संसार की सबसे पुराना धर्मग्रंथ व पुस्तक मानी जाती है। ऋग्वेद की भाषा संस्कृति ही नहीं बल्कि सुसंस्कृत भी है। सही मायने में कहा जाए तो यह ग्रंथ भारतीय शिक्षा का इतिहास है जिसके अध्ययन से भारतीय समाज के विकास व निरंतर विकसित होती शिक्षा प्रणाली को समझा जा सकता है। आदि काल तथा लोकायत से विकसित होकर बौद्ध कालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक व सामाजिक परिवेश में फलते फूलते देखा जा सकता है । शिक्षा के प्रारंभिक दौर में महिलाओं और शूद्रों शिक्षा के दायरे से बाहर रखा जाता था। लेकिन बौद्ध काल में उन्हें भी शिक्षा का अधिकार दिया गया। इस दौर में नारी शिक्षा को चुनौतियां और समस्याओं का सामना करना पड़ा। प्राचीन काल की शिक्षा वर्ण पर आधारित थी। शिक्षा संस्थान गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह के नाम से प्रचलित है शिक्षकों को आचार्य, गुरु कहा जाता था शिक्षा की व्यवस्था इन्हीं के आश्रमों व घरों तक सीमीत थी।शिष्यों में सर्वप्रथम शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार ब्राह्मणों का हुआ करता था उसके बाद क्षत्रिय का जिनको युद्ध और रक्षा के लिए तैयार किया जाता था,फिर वैश्य जो व्यापार करते थे, शूद्रों को सम्मानित शिक्षा का अधिकार नहीं था ना ही उन्हें गुरुकुल में प्रवेश दिया जाता था। 7 में वर्ष में ब्राह्मण के बालक, 11वीं में क्षेत्रीय और 12वीं में वैश्य के बालकों की उपनयन विधि थी जिसके तहत उनका शिक्षण होता था। उनके शिक्षण में वेद, पुराण, कर्मकांड, ब्रह्मचारी, जीवन जीने गुरु सेवा व धर्म बुद्धि की शिक्षा निशुल्क मिलती थी। आचार्य का चरण स्पर्श करना, उनके खान-पान व सेवा की व्यवस्था करना भी शिक्षुओं का ही काम करता था। इसके अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण, चिकित्सा आदि विषयों का धीरे-धीरे अध्धयन होने लगा। यह पढ़ाई सामान्यतःगुरुकुलों, तोल, पाठशाला, मठ और विहारों में होती थी। काशी, तक्षशिला, नालंदा विक्रमशिला, वल्लभी, ओदांतपुरी, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि शिक्षा के बड़े केंद्र थे। दक्षिण भारत में एन्नारियम,सलौत्गि,तिरूमुक्कुदल,आदि शिक्षा के बड़े केंद्र रहे।गुरुओं का ध्यान बालक की संस्कृति,शास्त्र,शस्त्र, धर्म, नीति,सदाचारके अनुसार व धर्म के अनुसार मानव जीवन के चार आश्रम में,ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता था।प्राचीन भारतीय शिक्षा में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी।आचार्य जब चाहे योग्य समझें परीक्षा ले लेते थे। परीक्षा का ढांचा एकदम आश्रम के विषय की व्यवस्था और विवेक के अनुसार था।बड़े बड़े विश्वविद्यालय चलते थे।

तक्षशिला विश्वविद्यालय वर्तमान पाकिस्तान में रावलपिंडी से 18 मील दूर इस विश्वविद्यालय के बारे में मान्यता है कि राम के भाई भरत के पुत्र तक में उस नगरी की स्थापना की थी। यह विश्व का पहला विश्वविद्यालय माना गया है, जिसकी स्थापना 7वीं सदी ई.पू.की गई और यह 460 ईस्वी तक अस्तित्व में रह ।उस समय में पूरे विश्व से10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे और 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। तक्षशिला विश्वविद्यालय का विस्तार मात्र तक्षशिला तक सीमित नहीं रहा यह अलग अलग जगहों पर अध्ययन संस्थान के रूप में भी बदला। आचार्यों ने यहां विभिन्न विद्यालय बनाए हुए थे जो छात्रों की उनकी रूचि के अनुसार महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों में शिक्षा देते थे, जैसे कि वेद-वेदांत,अष्टदशा विज्ञान,दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति,अश्व विद्या,युद्ध, विद्या, ज्योतिष, मंत्र विद्या, मंत्र विद्या आदि की शिक्षा दी जाती थी। इनमें कोई पाठ्यक्रम की नियत तिथि और पाठ्यक्रम विनिर्दिष्ट नहीं था।ऐसा माना जाता है कि पाणिनी,कौटिल्य, चंद्रगुप्त,जीवक, कौशल राज आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण की।ऐसे ही कन्या गुरुकुल,पाठशाला, आश्रम चलते थे।. नालंदा विश्वविद्यालयआत्मिक बिहार की राजधानी से 55 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में 450 ईसवी पूर्व से 1194 ईस्वी तक रहा।इसी तरह उदांतपुरी, सोमपुरा, कांचीपुरम, मणिखेत, शारदा पीठ, पुष्पगिरी आदि बड़े शिक्षण संस्थान देश के विभिन्न कोणों से चलते रहे।शिक्षा के विस्तार के इस दौर में शिक्षा का मूल मकसद धर्मपर आधारित वर्ण व्यवस्था को समृद्ध करना और अपने अपने वर्णों से संबंधित कार्य सीखना व रोजगार उन्मुख शिक्षार्थी पैदा करना था। इन विद्यापीठों मे ना गुरु को वेतन मिलता था ना शिष्य को सुविधाएं।शिष्यों को आवासीय सुविधाओं में रहना पड़ता था व सुबह शाम गुरु आचार्य की सेवा करनी पड़ती थी।यह जानकारियां ऋग्वेद से प्राप्त होती हैं।सामान्यतया वैदिक काल को दो भागों में विभक्त किया गया है।पूर्व वैदिक काल(1500 से 1000 ईस्वी पूर्व) दूसरा उत्तर वैदिक काल(1000 से 600 ई.पूर्व) ।वर्ण व्यवस्था पर आधारित यह शिक्षा पद्धति चार वर्णों में विभक्त थी। ब्राह्मण का कार्य शिक्षा संबंधी,क्षत्रिय- शत्रुओं से रक्षा,वैश्य- वाणिज्य से संबंधित ।शूद्र उद्योग व कला से संबंधित ।इस व्यवस्था को वर्णाश्रम धर्म कहते थे।

वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था तब बहुत प्रगतिशील मानी जाती थी और समाज को विकसित करने में इस शिक्षा व्यवस्था ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

अगले अंक में मध्यकालीन भारत की शिक्षा व्यवस्था
(लेख तीन अंकों में है दूसरा अंक कल पढ़े)

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