हिंदी साहित्य और हिंदी जगत में ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा जो हरिशंकर परसाई के नाम से परिचित नहीं होगा। हरिशंकर परसाई वे साहित्यकार हैं जिन्होंने हिंदी व्यंग्य को समाज से जोड़ते हुए हल्के-फुल्के रंगों में भी सामाजिक चेतना को उजागर किया और लोगों को सामाजिक धरातल की वास्तविकता पर लाकर खड़ा किया। उन्होंने पिसती हुई मध्यवर्गीय जनता को उजागर करते हुए उन प्रश्नों से जोड़ा जो सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन से दूर एक सच्चाई के पक्ष में लड़ने की प्रेरणा देता हो। उनकी भाषा, उनकी शैली में खास किस्म का आकर्षण रहा है जो पाठक को प्रभावित करता है। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को हिंदी साहित्य का दर्जा दिलाया और आम जनमानस को व्यंग्य के माध्यम से हिंदी साहित्य से जोड़ा।
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को जमानी, होशंगाबाद,मध्यप्रदेश में हुआ था। 18 वर्ष की उम्र में इन्होंने वन विभाग में नौकरी की। खंडवा में 6 महीने तक अध्यापन किया। जबलपुर में ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षण की उपाधि लेकर व 1942 में वहीं मॉडल स्कूल में अध्यापन का कार्य किया। बाद में नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र लेखन का काम शुरू किया। उन्होंने जबलपुर से ही ‘वसुधा’ मासिक नाम की पत्रिका निकाली। धनाभाव के कारण पत्रिका बंद करनी पड़ी । नई दुनिया में ‘सुनो भई साधो’ नई कहानियों में ‘पांचवा कॉलम’ और ‘उलझी उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अंत में’ इत्यादि कहानियां उपन्यास निबंध लेखन के बावजूद मुख्यतः व्यंग्य विधा में काम करते रहे। उन्होंने अपने व्यंग्य के माध्यम से पाठकों का ध्यान बार-बार समाज की विषमताओं विसंगतियों की ओर आकृष्ट किया जिन्होंने हमारे जीवन को दुभर बनाया है। उन्होंने राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार शोषण पर करारा व्यंग्य किया जो हिंदी साहित्य में अनूठा और सम्माननीय बन पड़ा है। उनका निधन 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में हुआ। परसाई जी ने हिंदी साहित्य को विशेषकर व्यंग्य विधा में एक नई पहचान दिलाई है जिसके लिए समस्त हिंदी जगत उनका ऋणी है।
उनकी प्रमुख रचनाओं में
कहानी संग्रह :- हंसते हैं रोते हैं’ जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव,
उपन्यास:- रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल
संस्मरण:- तिरछी रेखाएं
लेख संग्रह :- तब की बात और थी, भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत, प्रेमचंद के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन, पगडंडियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, उखड़े खंभे, सदाचार की ताबीज़, विकलांग श्रद्धा का दौर, तुलसी चंदन घिसैं, हम एक उम्र से वाकिफ हैं, बस यात्रा।
बाल्यावस्था में जिन्होंने लेखन में रुचि देना आरंभ कर दिया और आज तक से जन करते रहे साहित्य सृजन और नौकरी के साथ-साथ ना चलते हुए इन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और साहित्य साधना आरंभ कर दी परसाई जी की भाषा सरल विनम्र और रंगों से भरी हुई होती थी उन्होंने मोहरों का भी बराबर प्रयोग किया है जब उनका विन्यास और पाठकों की मानसिकता से भलीभांति परिचित है।
वे मानते थेः-
“मानसिक रूप से ‘दोगले’ नहीं ‘तिगले’ हैं। संस्कारों से सामंतवादी हैं, जीवन मूल्यों से अर्ध पूंजीवादी हैं और बातों समाजवाद की करते हैं”।
“मेरा अंदाजा है इस इस समय देश में राजनीतिक क्षेत्र में लगभग 5000 चमचे काम कर रहे हैं. ये प्रधान चमचे हैं ! फिर इनके स्थानीय स्तर के उपचमचे और अतिरिक्त चमचे होते हैं ! यह सब हीनता, मुफ्त खोरी, लाभ और कुछ वफादारी की डोर से अपने नेता से बंधे रहते हैं”।
हरिशंकर परसाई !