पुस्तक समीक्षा “कल्प सृजन”, नारी संवेदनाओं के बहाने समाज के अंतर्द्वव्द की पराकाष्ठा !

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2007
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कल्पना गांगटा की पुस्तक ‘कल्प सृजन’की समीक्षा !!

कल्प सृजन लेखिका कल्पना गांगटा का पहला काव्य संग्रह देखने को मिला जिसमें चौवन के लगभग छोटी बड़ी कविताएँ सम्मिलित की गई है। यह संग्रह पेपर बैक में छपा है। कविताओं का यह संग्रह समाज के हर विषय को छूता हुआ ‘बदलाव’ से अपनी यात्रा आरंभ करता है। इस बदलाव के प्रति एक क्षोभ जो कविता में बहता है ‘परिवर्तन’ में अपने आप से ही प्रश्न करने लग पड़ता है जहाँ इंसान और जनवर में कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता है।इसी मायने में हम देखें तो सपाट और सीधे तरीक़े से गांगटा की कविताओं में नारी संवेदनाओं को,उसकी अंतर आत्मा की विषमताओं को उकेरने में एक जोरदार प्रयास किया है ।फिर वह चाहे नदी हो ,मौसम का मिजा़ज या नारी,स्वर एक सा ही रहा है।वह तो विषमताओं से दूर उड़ जाना चाहती ‘काश मैं एक पंछी होती’ अपने आत्मसम्मान के लिये जो बचाए रखना उन्हें कठीन लगता है, आज के दौर में जहाँ सामाजिक, आर्थिक शोषण प्रचुर मात्रा में है। इसी का प्रारूप कविताओं में देखा जा सकता है ।आज ग्लैमर की दुनिया की चमक का प्रभाव समाज पर भी देखा जा सकता है। नारी के सामाजिक संघर्ष का ख़ाका तो बना दिया गया है लेकिन नारी के इस संघर्षपूर्ण जीवन होने के कारणों को उद्रित करने से बचा गया है।ज़िंदगी को एक ‘पहेली’ के रूप में देखती है गांगटा।ऐसा करते समय शायद कवयित्री के मन में पहेली को सुलझाने का विचार न आया हो कि इस पहेली के पीछे कौन लोग हैं जो इसे सुलझने नहीं देते।

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कविताओं में लेखिका ने अपने परिवेश में जीने के कारण गाँव हर जगह ढो़या है और कविता के संदर्भों ने कविता के पैराडाक्स को एक सीमा से बाहर कर दिया है ।इसी क्रम में नवयुग,मौसम का मिजा़ज मेरे गाँव की मिट्टी, मेरा गाँव , मेरा शिमला व अन्य कई ऐसी कविताएँ है। यहीं से वह नेगेटिविटी दिखनी शुरू होती है।

कोई नींद सबकी हराम कर सो रहा/कैसे लहराएँगे पौधे,कैसे होगी ख़ुशहाली/नई फ़सल कहां से अच्छी आने लगी/जब बाढ़ ही खेत को खाने लगी ।यह चिंता वाजिव है और महत्वपूर्ण भी। जब समाज ने एक तबके को दबा दिया हो तो ये प्रश्न उठते ही रहेंगे । कब तक इस से बचा जा सकता हैं?अभिव्यति की चुनौती को कवि ह्रदय ने स्वीकार किया है और वह ख़तरे भी मोल लिये हैं जिनकी एक कवि से अपेक्षा होती है।

अपने ही परिवेश में गांगटा ने शोषणयुक्त समाज को भी देखने का साहस कर दिखाया हैं छोटे से अंश में ही सही।कहीं मज़दूरों,किसानों में व्याप्त सामाजिक आर्थिक संबंधों के अंतर्विरोधों को भी कविताओं के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयास किया है।मानवीय त्रासदियों से गुज़रती हैं ये कविताएँ। “बेटियाँ” आज भी छली जा रहीं है। फिर बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ मात्र एक नारा रह गया है।यह एक गंभीर और संवेदनशील चुनौती है जो बेटी की चित्कार लिये हुए है।वह भी पढ़-सुन कर पीड़ा दे रही है।सामाजिक संस्कार ऐसे होते जा रहे हैं कि एक सामान्य व्यक्ति अपने आप को प्रतिगामी शक्तियों से लड़ता हुआ ठगा -ठगा सा महसूस करता है।

आज भी छल हो रहा है,खून चूसा जा रहा है मानवता का/ नाच रहा है भ्रष्टाचार,घुट रहा है दम इंसानियत का।ये सब कविताएँ पकने की प्रक्रिया में हैं और पाठकों में एक संचेतना पैदा करती है साथ में विश्व में औपनिवेशिकरण के प्रभाव को भी मानस पटल पर सहज तरीक़े से रख देतीं है।सपने दिखा कर उम्मीद जगाकर छीन लेती है सब कुछ/भ्रमित करती है लक्ष्य से भटकती कभी/ कठपुतलियाँ हैं हम सब,रंगमंच पर आये हैं किरदार निभाने।वर्तमान समाज में हम सब व्यवस्था के चलते एक ऐसा जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं जहाँ हमारी सोच में भी लक्ष्य से भटकाव आ गया है।ऐसा करने में समकालीन कविता के चरित्र को हमने तलाशने का प्रयास तो नहीं किया है लेकिन कविता के मूल मानदंडों पर देखने का प्रयास किया है,मानवीयकरण को लेकर।

कुछ कविताओं में ‘राजनैतिक टोन्स’ भी रही हैं।जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीति के प्रति अाक्रो़श भी कवितायें ढ़ोती नज़र आर रहीं हैं।अत: कविता में ‘सफ़ेदपोश’नज़र आ जाते हैं।हिन्दी के प्रति हीन भावना क्यों?अपनी भाषा की अस्मिता का प्रश्न क्यों? राजसी गुण होते हुए भी/दर दर की भीख माँग रही है। ऐसा क्यों लगता है गांगटा को?
कहीं कहीं प्रुफ की गल्तियां व भाषा की अशुद्धियाँ खलती है।

कल्प सृजन में समाहित कवितायें जो अभी परिपक्व होने की प्रक्रिया से गुज़र रही है, निःसंदेह किसी जुमलेबाजी,प्रतीकों या शब्दों की जबंलिंग से दूर पाठक पर प्रभाव छोड़ती हैं,ख़ासकर निम्न मध्यवर्गीय पाठकों पर।इस मायने में यह कविता संग्रह ध्यान आकर्षित ज़रूर करता है और संग्रहणीय भी है।

पुस्तक का नाम :कल्प सृजन

लेखिका : कल्पना गांगटा
प्रकाशक : ग्लोबल फ्रेटर्निटी आफ पाइट्स गुरूग्राम (हरियाणा)
मूल्य : ₹210

समीक्षाकर्ता  : देवेंद्र कुमार धर !!

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