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हिमाचल । “यूनान-मिस्र-रोमा, सब मिट गए जहाँ से। अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा ।। “ कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन,दौर-ए-ज़माँ हमारा।। ~ इक़बाल...... जिस भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर हम नाज़ करते हैं उसका आधार हमारे उच्च आदर्श और जीवन मूल्य हैं और इन्हें संजोने का काम हमारे ऋषि-मुनियों,मनीषियों और धर्मात्माओं ने बखूबी किया है। आदिकाल से ही हमारे समाज ने गुरु-शिष्य परंपरा की अद्भुत मिसाल पेश की है। अर्जुन को द्रोणाचार्य मिले तो महाभारत के मुख्य नायक बने; चंद्रगुप्त को कौटिल्य मिले तो भारत के छत्रपति सम्राट बने। ऐसे ना जाने कितने उदाहरण इतिहास बन गए। *जिस समाज में शिक्षक का सम्मान होता है वह अनंत काल के लिए जीवंत हो जाता है । यदि गहराई से देखा जाए तो शिक्षक के प्रति सम्मान की यह भावना किसी भी संस्कृति के मूल में निहित होती है। लेकिन वर्तमान में जिस प्रकार से शिक्षकों के प्रति समाज के एक वर्ग में असम्मान और असंतोष की भावना पनप रही है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए शुभ संकेत नहीं है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में शिक्षक का दर्जा भगवान से भी ऊपर का माना गया है। समय के साथ-साथ गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है। परिवर्तन संसार का नियम है। आधुनिकता की चकाचौंध में नैतिक मूल्यों, उच्च आदर्शों एवं एवं प्राचीन मान्यताओं का दिन-प्रतिदिन ह्रास सो रहा है। *विश्व गुरु के देश में गुरु के प्रति ऐसी भावना किसी मानसिक संक्रमण से कम नहीं है।* पिछले लगभग एक वर्ष से समूचा विश्व कोरोना जैसी घातक महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी से बचने का सबसे सशक्त और कारगर उपाय लॉकडाउन रहा है। इस महामारी ने मानव जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। हमारे देश भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सभी सार्वजनिक स्थल, स्कूल, कॉलेज, शैक्षणिक संस्थान एवं सभी कार्यालय बंद कर दिए गए। ऐसे में कुछ नासमझ और विकृत मानसिकता के लोगों को लगा कि शायद पिछले एक वर्ष से सभी शिक्षक अपने-अपने घरों में छुट्टी मना रहे हैं। दिन-प्रतिदिन शिक्षकों के प्रति उनकी कुंठा बढ़ती ही गई। ऐसे लोगों में वह कर्मचारी भी शामिल हैं जो खुद भी लॉकडाउन के दौरान घर पर रहकर के सरकारी पगार ले रहे थे। शिक्षक चाहे प्राइमरी स्तर का हो या यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर,पूरे लॉकडाउन के दौरान बच्चों के साथ ऑनलाइन कक्षा के माध्यम से जुड़ा रहा है और इसके अतिरिक्त बहुत सारे ऐसे कार्यों का निष्पादन भी उसने किया जो किसी सत्र के दौरान अति आवश्यक और अपरिहार्य होते हैं। हिमाचल प्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में शिक्षकों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पंचायत चुनाव को संपन्न करवा कर जैसे ही 27 जनवरी को हिमाचल प्रदेश में विद्यालय खुले तथा सरकारी आदेशों के अंतर्गत मंडी के सरकाघाट उपमंडल में कुछ शिक्षकों के रेंडम सैंपल लिए गए थे, जिसमें लगभग 40 से अधिक शिक्षक करोना पॉजिटिव पाए गए। बस फिर क्या था ? पूरे सोशल मीडिया पर शिक्षकों के प्रति कुंठा एवं नफरत जगजाहिर हो गई। तरह-तरह की टिप्पणियां फेसबुक और अन्य सोशल-मीडिया उपक्रमों पर आनी शुरू हो गई। इन लोगों को इस बात का दुख नहीं था कि शिक्षक कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं बल्कि ये इस बात से दुखी थे की शिक्षक स्कूल खुलने से ठीक पहले कैसे कोरोना संक्रमित हो गए? कहीं फिर से विद्यालय बंद ना हो जाए?आदि- आदि।धिक्कार है ऐसी मानसिकता पर !! ऐसी सोच पर !! आज की शिक्षा बच्चे पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था है। पूरी व्यवस्था बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है। बच्चा है तो विद्यालय है ....शिक्षक है... समाज है!!! बच्चा चाहे मेरा है या आपका: महत्वपूर्ण है!! अमूल्य है!! बच्चे की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। शिक्षक कभी भी,किसी भी परिस्थिति में विद्यालय आने के लिए तैयार है। विद्यालय खोलना या ना खोलना शिक्षक के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। उसे तो सिर्फ सरकारी आदेशों की अनुपालना करनी है। सवाल बच्चे की जिंदगी से जुड़ा है इसलिए कृपया इसे सरकार को तय करने दीजिए। मैं उन शिक्षकों के प्रति भी सहानुभूति व्यक्त करता हूं जिन्होंने कभी इन लोगों को कक्षा-कक्ष में पढ़ाया होगा। समाज में पनपती विकृत मानसिकता और शिक्षक के प्रति संवेदनहीनता को यदि समय रहते मिटाया नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार पुनः सांस्कृतिक एवं मानसिक गुलामी के रसातल में डूब जाएंगे !
हिमाचल । “यूनान-मिस्र-रोमा, सब मिट गए जहाँ से। अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा ।। “ कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन,दौर-ए-ज़माँ हमारा।। ~ इक़बाल......
जिस भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर हम नाज़ करते हैं उसका आधार हमारे उच्च आदर्श और जीवन मूल्य हैं और इन्हें संजोने का काम हमारे ऋषि-मुनियों,मनीषियों और धर्मात्माओं ने बखूबी किया है। आदिकाल से ही हमारे समाज ने गुरु-शिष्य परंपरा की अद्भुत मिसाल पेश की है। अर्जुन को द्रोणाचार्य मिले तो महाभारत के मुख्य नायक बने; चंद्रगुप्त को कौटिल्य मिले तो भारत के छत्रपति सम्राट बने। ऐसे ना जाने कितने उदाहरण इतिहास बन गए। *जिस समाज में शिक्षक का सम्मान होता है वह अनंत काल के लिए जीवंत हो जाता है ।
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यदि गहराई से देखा जाए तो शिक्षक के प्रति सम्मान की यह भावना किसी भी संस्कृति के मूल में निहित होती है। लेकिन वर्तमान में जिस प्रकार से शिक्षकों के प्रति समाज के एक वर्ग में असम्मान और असंतोष की भावना पनप रही है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए शुभ संकेत नहीं है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में शिक्षक का दर्जा भगवान से भी ऊपर का माना गया है। समय के साथ-साथ गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है। परिवर्तन संसार का नियम है। आधुनिकता की चकाचौंध में नैतिक मूल्यों, उच्च आदर्शों एवं एवं प्राचीन मान्यताओं का दिन-प्रतिदिन ह्रास सो रहा है। *विश्व गुरु के देश में गुरु के प्रति ऐसी भावना किसी मानसिक संक्रमण से कम नहीं है।* पिछले लगभग एक वर्ष से समूचा विश्व कोरोना जैसी घातक महामारी से जूझ रहा है। इस महामारी से बचने का सबसे सशक्त और कारगर उपाय लॉकडाउन रहा है। इस महामारी ने मानव जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। हमारे देश भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सभी सार्वजनिक स्थल, स्कूल, कॉलेज, शैक्षणिक संस्थान एवं सभी कार्यालय बंद कर दिए गए। ऐसे में कुछ नासमझ और विकृत मानसिकता के लोगों को लगा कि शायद पिछले एक वर्ष से सभी शिक्षक अपने-अपने घरों में छुट्टी मना रहे हैं। दिन-प्रतिदिन शिक्षकों के प्रति उनकी कुंठा बढ़ती ही गई। ऐसे लोगों में वह कर्मचारी भी शामिल हैं जो खुद भी लॉकडाउन के दौरान घर पर रहकर के सरकारी पगार ले रहे थे। शिक्षक चाहे प्राइमरी स्तर का हो या यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर,पूरे लॉकडाउन के दौरान बच्चों के साथ ऑनलाइन कक्षा के माध्यम से जुड़ा रहा है और इसके अतिरिक्त बहुत सारे ऐसे कार्यों का निष्पादन भी उसने किया जो किसी सत्र के दौरान अति आवश्यक और अपरिहार्य होते हैं। हिमाचल प्रदेश में हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में शिक्षकों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पंचायत चुनाव को संपन्न करवा कर जैसे ही 27 जनवरी को हिमाचल प्रदेश में विद्यालय खुले तथा सरकारी आदेशों के अंतर्गत मंडी के सरकाघाट उपमंडल में कुछ शिक्षकों के रेंडम सैंपल लिए गए थे, जिसमें लगभग 40 से अधिक शिक्षक करोना पॉजिटिव पाए गए।
बस फिर क्या था ? पूरे सोशल मीडिया पर शिक्षकों के प्रति कुंठा एवं नफरत जगजाहिर हो गई। तरह-तरह की टिप्पणियां फेसबुक और अन्य सोशल-मीडिया उपक्रमों पर आनी शुरू हो गई। इन लोगों को इस बात का दुख नहीं था कि शिक्षक कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं बल्कि ये इस बात से दुखी थे की शिक्षक स्कूल खुलने से ठीक पहले कैसे कोरोना संक्रमित हो गए? कहीं फिर से विद्यालय बंद ना हो जाए?आदि- आदि।धिक्कार है ऐसी मानसिकता पर !! ऐसी सोच पर !!
आज की शिक्षा बच्चे पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था है। पूरी व्यवस्था बच्चे के इर्द-गिर्द घूमती है। बच्चा है तो विद्यालय है ....शिक्षक है... समाज है!!! बच्चा चाहे मेरा है या आपका: महत्वपूर्ण है!! अमूल्य है!! बच्चे की जिंदगी के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता है। शिक्षक कभी भी,किसी भी परिस्थिति में विद्यालय आने के लिए तैयार है। विद्यालय खोलना या ना खोलना शिक्षक के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। उसे तो सिर्फ सरकारी आदेशों की अनुपालना करनी है। सवाल बच्चे की जिंदगी से जुड़ा है इसलिए कृपया इसे सरकार को तय करने दीजिए।
मैं उन शिक्षकों के प्रति भी सहानुभूति व्यक्त करता हूं जिन्होंने कभी इन लोगों को कक्षा-कक्ष में पढ़ाया होगा। समाज में पनपती विकृत मानसिकता और शिक्षक के प्रति संवेदनहीनता को यदि समय रहते मिटाया नहीं गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार पुनः सांस्कृतिक एवं मानसिक गुलामी के रसातल में डूब जाएंगे !
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