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शिमला ! हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में आज सामाजिक समरसता मंच एवं अभ्युदय अध्ययन मण्डल द्वारा संगोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें मुख्य अतिथि प्रति कुलपति ज्योति प्रकाश , मुख्य वक्ता श्याम जी अखिल भारतीय समरसता सयोंजक , हिमाचल प्रान्त के प्रान्त संघ चालक वीर सिंह रांगड़ा उपस्थित रहे। सामाजिक समरसता के बारे में अखिल भारतीय समरसता संयोजक ने बताया कि यह एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा करना एवं इसे ठीक प्रकार से कार्यान्वित करना आज समाज व राष्ट्र की आवश्यकता है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम 'सामाजिक समरसता' यानी सामाजिक समानता "एकात्मभाव "यदि व्यापक अर्थ देखें तो इसका अर्थ है - जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता रहित समाज आपसी प्रेम एवं सौहार्द के साथ समाज के सभी वर्गों एवं वर्णों की "बहु भाव व एकत्व भव " में एकरूपता ही समरस्ता का वास्तविक अर्थ है। ईश्वर ने सृष्टि में सभी को मनुष्य के रूप में भेजा और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना ही सामाजिक समरसता है ।यदि देखा जाये तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह के भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है और जानकारी देते हुए बताया की यह समाज किसी एक व्यक्ति, जाति, वर्ण या समुदाय विशेष से न तो बन सकता है और न ही चल सकता है। समाज की सम्पूर्णता एवं उन्नति के लिए प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण या समुदाय का हो उसका सहयोग आवश्यक है। जिस प्रकार से शरीर का प्रत्येक अंग स्वतंत्र रूप से अस्तित्वहीन है अर्थात् विभिन्न अंग सामूहिक रूप से मिलकर ही शरीर का निर्माण करते हैं उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तिवहीन है क्योंकि विकास सामूहिकता में ही होता है। व्यक्ति के वर्ण का नहीं कर्म का महत्व है। अनेकों वर्षों से कई संत, ऋषि समाज-सुधारक एवं कई समाज सेवी संस्थायें निरन्तर कार्यरत हैं। डा. अम्बेडकर ने इसे संवैधानिक रूप दिया जिससे समाज में समानता लाने के प्रयासों को काफी सफलता भी मिली है। प्रत्येक नागरिक को उसकी जाति, पंथ, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षमता के आधार पर हर क्षेत्र में समान अधिकार दिये गये। लोगों के पढ़े-लिखे हो जाने से आर्थिक समानता में तो वृद्धि हुई है परन्तु शहरी भाव के अपेक्षा अभी छोटे कस्बों एवं गांवों में यह समस्या बनी हुई है।इस दिशा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ निरन्तर कार्य कर रही है। इसके संस्थापक पूजनीय हैडगेवार जी अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव से पूर्णतय: दूर ही नही बल्कि कट्टर विरोधी थे। 1932 में डा. हैडगेवार जी ने घोषणा की कि राष्ट्रीय सेवक संघ के सात वर्ष के कार्यकाल में ही संघक्षेत्र से जातिभेद एवं अस्पृश्यता पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है। पूजनीय श्री गुरू जी ने भी कहा है, ''हिन्दू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकती है। इसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। यह एक सामाजिक जरूरत है, इस बुराई का खात्मा जागरूक समाज के द्वारा ही किया जा सकता है।
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