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लाहौल ! जनजातीय जिला लाहौल घाटी के जोबरंग जुगणी में इस समय जातर की धूम है। जोबरंग जुगणी जातर की एक अपनी अलग ही पहचान है। इस दिन जोबरंग गांव के हर घर से एक-एक पुरूष पूरी तरह से सज-धज कर जोगणी और शिव का नाम लेकर जयकारा लगा कर घरों से बाहर निकलता है। यह सभी पुरुष परंपरागत पोशाक व हाथों में शुर, यौरा और छड़ी लिए " डन्नाशी के इर्द-गिर्द इकट्ठे होते है और अपने चेहरे पर विशेष प्रकार के नकाब लगाते हैं जिसे मुखौटा कहते हैं। वह सभी भी उन तीन पुरूष और डन्नाशी के पास खड़े हो जाते हैं। तीनों मोहरों को जहाँ सुसज्जित करके रखा गया था। एक आदमी सफेद चादर में अपनी पीठ पर उठाते हैं सबसे पहले बासूंरी वादक बासूंरी में विशेष धुन बजाता है उसके पीछे बोमिणी वादक बासूंरी के धुन के ताल मिला कर ठप- ठप करके चलता है। उसके पीछे मोहरा वाहक फिर ज्ञात मोहरा , मेचिमी मोहरा, खुलीगंजा उनके पीछे एक-एक करके सभी सुरजिणि एक निश्चित स्थान पर आकर मोहरा और चोग पहने जाते हैं। यहां से सवा मतलब कुंभ की तरफ आते हैं कुंभ पहुचने से पहले पुजारी के घर से शागुण निकालते हैं। शागुण करने के बाद कुंभ की तरफ जाते हैं और कुंभ के बीच में लगभग 12 फुट के करीब बर्फ का शिवलिंग बनाया होता है बर्फ के शिवलिंग की परिक्रमा करते हुए जय महाराज बोलते हुए देवताओं को शुरू, यौर अर्पित करते रहते हैं। खुलीगंजा बर्फ की बकरी बना कर छत से नीचे जहाँ बर्फ की शिवलिंग बनाया हुआ है, वहाँ फैंकते हैं डन्नाशी कुंभ से कुछ दूरी पर बैठकर अंतराल मे कांडा बजाता रहता है जो मोहरा होता है उनको देव खेल आता है और वह आने वाले साल भर की फसल, बीमारी, बर्षा, बर्फ और जन्म मरण की भविष्यवाणी करता है। उनकी की हुई सभी भविष्यवाणी सच साबित होता है। उसके बाद देव कार्य संपन्न होता है और पुरुष अपने मुखौटे को उतार कर एक शुद्ध स्थान पर रखते हैं फिर समस्त गाँव के लोग बर्फ के बने शिवलिंग के चारों तरफ नाचते हैं। मान्यता है कि जो भी बर्फ के बने शिवलिंग की नाचते हुए परिक्रमा करेंगे तो मन शांत और अच्छी फसल की पैदावार होती है।
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