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चम्बा ! आज बात करते हैं ढोलरू लोक गायन की । वर्तमान में शायद हमारी नई पौध को "ढोलरू परम्परा " के विषय में बस इतना सा ही ज्ञान होगा कि होली के त्यौहार के कुछ दिन पूर्व या पश्चात पुराने वस्त्रों को मांगने के लिए छोटे-2 ढोलक लेकर कुछ अनजाने से ग्रामीण दंपति या समूह लोगों के घर-2 जाकर भक्ति गायन करते हैं। लोग इन का गायन सुनते हैं और इन्हें पुराने वस्त्र , अन्न पैसे इत्यादि भेंट करते हैं । यह लोग लगभग एक सप्ताह में अपनी परिक्रमा पूर्ण कर लेते हैं । और इस दौरान प्राप्त वस्तुओं को पुरानी बोरियों अथवा झोलों में डालकर वापस अपने घरों की ओर लौट जाते हैं । इन लोगों के आने या जाने को यद्यपि आज के आधुनिक युग में कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता हो, लेकिन सैकड़ों वर्ष प्राचीन इस परंपरा को चम्बा व कांगड़ा जिला में हमेशा से ही अत्यंत खास धार्मिक आस्था से जोड़कर देखा जाता रहा है । " चैत्र संक्रांति "को ढोलरुओं का आगमन, आम जनमानस को " चैत्र माह " का नाम सुनाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी , प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करने के लिए हर वर्ष अपनी मधुर, सुरीली आवाज से यहां दस्तक देता है। पुरानी मान्यताओं के अनुसार चैत्र माह का नाम एक "जाति विशेष" के लोगों के द्वारा सुनना शुभ माना जाता है ढोलरू गायन की यह परंपरा यद्यपि हर वर्ष मात्र एक सप्ताह तक गांव व शहर में पुनर्जीवित होती है , लेकिन यह गायन समाज के हर वर्ग को जीवन दर्शन के सार से प्रतिबिंबित करवा जाता है । ढोलरू गायन करने वाले यह लोग चम्बा के ग्रामीण क्षेत्रों के अतिरिक्त साथ लगते जम्मू के बसोहली , बलोर इत्यादि क्षेत्र के गावों से भी चम्बा का रुख करते हैं। एक किंवदंती के अनुसार यह गायन परम्परा भगवान ब्रह्मा के सृष्टि रचनाकाल से चली आ रही है। उस युग में यह लोग भगवान शंकर की सभा में उनका महिमागान किया करते थे ।भगवान शंकर ने इनके स्तुति गान से प्रसन्न होकर इन्हें "मंगल मुखी " के वरदान से अलंकृत किया था ।और इन्हें वरदान दिया कि इस जाति के लोग पृथ्वी लोक में भी इसी प्रकार भगवान का गुणगान करेंगे तब से यह परंपरा निरंतर चलती आ रही है। एक अन्य मान्यतानुसार प्राचीन युग में इस जाति विशेष को अत्यंत दयनीय स्थिति में रहना पड़ता था जाति प्रथा के कारण उच्च जाति वर्ग के लोगों की प्रताड़ना को भी सहना पड़ता था। तब इन लोगों द्वारा भगवान विष्णु और शंकर की अत्यंत मनोयोग के साथ स्तुति की गई फलस्वरूप इन्हें वरदान प्राप्त हुआ कि "शुभ चैत्र माह" की शुरूआत इन लोगों के मुख से नाम सुनने के पश्चात ही मंगल कार्य को आरंभ किया जाएगा । वरदान अनुसार इस जाति विशेष के लोगों द्वारा "चैत्र माह " का नाम सुनाए जाने के एवज में इन्हें दान दक्षिणा प्रदान की जाएगी ताकि वर्ष भर के इनके गुजर बसर का प्रबंध हो सके" फाल्गुन माह" में ग्रीष्म ऋतु के आगमन पश्चात जब चैत्र माह अपनी बाहे फैलाये हरियाली से लबरेज घाटियों में खिले रंग बिरंगे फूलों की खुशबू से ऋतु परिवर्तन का उद्घो घोष करता है तो प्रकृति के कण-कण में हर्षोल्लास का विराट भाव अनायास ही वृक्षों की झूलती टहनियों में समाहित हुए परिंदों की चहचहाट के मध्य ढोलरूओं की स्वर लहरी के साथ प्रस्फुटित होकर चारों ओर गुंजायमान होने लगता है । यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में भी ढोलूरू गायन में मौलिक भक्ति रस अथवा भक्तिभाव का अत्यधिक स्थान है । ढोलक की धीमी थाप, पर चैत्र माह का नाम सुनाने के लिए सैकड़ों वर्षों की परंपराओं का यह पीढ़ी दर पीढ़ी का सफर यद्यपि एक दम तोड़ती परंपराओं को कृत्रिम सांसों के साथ आगे बढ़ा रहा है। लेकिन इस परंपरा का अंत न हो जाए इसके लिए आम जनमानस को भी प्राचीन भक्ति भाव की भावनाओं की कदर करनी होगी। महानुभाव, चैत्र माह के नाम का स्मरण करवाने के लिए अबकी बार जब कोई " ढोलरु" गायन के लिए आपके घर आंगन में पधारे तो आप अवश्य उसे उचित आसन देखकर भक्ति भाव से परिवार सहित उसका गायन सुनने का अवसर मत खो देना।नामालूम अगले वर्षों तक यह मौलिक गायन की परम्परा ,आधुनिक वाद्ययंत्रों और कान फाडु ध्वनि सयंत्रों के शोर में अपने वास्तविक माधुर्य , लयबद्धता सूरीलेपन के मौलिक भाव की धीमी धीमी चलती सांसो का अस्तित्व , प्रोत्साहन और आदर भाव की कमी में कहीं विलुप्त ना हो जाए । कहीं यह ढोलरू गीत माजी की हसीन सुरमयी यादों की भूली बिसरी दास्तां बन कर न रह जाए ।
चम्बा ! आज बात करते हैं ढोलरू लोक गायन की । वर्तमान में शायद हमारी नई पौध को "ढोलरू परम्परा " के विषय में बस इतना सा ही ज्ञान होगा कि होली के त्यौहार के कुछ दिन पूर्व या पश्चात पुराने वस्त्रों को मांगने के लिए छोटे-2 ढोलक लेकर कुछ अनजाने से ग्रामीण दंपति या समूह लोगों के घर-2 जाकर भक्ति गायन करते हैं। लोग इन का गायन सुनते हैं और इन्हें पुराने वस्त्र , अन्न पैसे इत्यादि भेंट करते हैं । यह लोग लगभग एक सप्ताह में अपनी परिक्रमा पूर्ण कर लेते हैं । और इस दौरान प्राप्त वस्तुओं को पुरानी बोरियों अथवा झोलों में डालकर वापस अपने घरों की ओर लौट जाते हैं ।
इन लोगों के आने या जाने को यद्यपि आज के आधुनिक युग में कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता हो, लेकिन सैकड़ों वर्ष प्राचीन इस परंपरा को चम्बा व कांगड़ा जिला में हमेशा से ही अत्यंत खास धार्मिक आस्था से जोड़कर देखा जाता रहा है । " चैत्र संक्रांति "को ढोलरुओं का आगमन, आम जनमानस को " चैत्र माह " का नाम सुनाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी , प्राचीन परंपराओं का निर्वहन करने के लिए हर वर्ष अपनी मधुर, सुरीली आवाज से यहां दस्तक देता है।
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पुरानी मान्यताओं के अनुसार चैत्र माह का नाम एक "जाति विशेष" के लोगों के द्वारा सुनना शुभ माना जाता है ढोलरू गायन की यह परंपरा यद्यपि हर वर्ष मात्र एक सप्ताह तक गांव व शहर में पुनर्जीवित होती है , लेकिन यह गायन समाज के हर वर्ग को जीवन दर्शन के सार से प्रतिबिंबित करवा जाता है । ढोलरू गायन करने वाले यह लोग चम्बा के ग्रामीण क्षेत्रों के अतिरिक्त साथ लगते जम्मू के बसोहली , बलोर इत्यादि क्षेत्र के गावों से भी चम्बा का रुख करते हैं।
एक किंवदंती के अनुसार यह गायन परम्परा भगवान ब्रह्मा के सृष्टि रचनाकाल से चली आ रही है। उस युग में यह लोग भगवान शंकर की सभा में उनका महिमागान किया करते थे ।भगवान शंकर ने इनके स्तुति गान से प्रसन्न होकर इन्हें "मंगल मुखी " के वरदान से अलंकृत किया था ।और इन्हें वरदान दिया कि इस जाति के लोग पृथ्वी लोक में भी इसी प्रकार भगवान का गुणगान करेंगे तब से यह परंपरा निरंतर चलती आ रही है।
एक अन्य मान्यतानुसार प्राचीन युग में इस जाति विशेष को अत्यंत दयनीय स्थिति में रहना पड़ता था जाति प्रथा के कारण उच्च जाति वर्ग के लोगों की प्रताड़ना को भी सहना पड़ता था। तब इन लोगों द्वारा भगवान विष्णु और शंकर की अत्यंत मनोयोग के साथ स्तुति की गई फलस्वरूप इन्हें वरदान प्राप्त हुआ कि "शुभ चैत्र माह" की शुरूआत इन लोगों के मुख से नाम सुनने के पश्चात ही मंगल कार्य को आरंभ किया जाएगा ।
वरदान अनुसार इस जाति विशेष के लोगों द्वारा "चैत्र माह " का नाम सुनाए जाने के एवज में इन्हें दान दक्षिणा प्रदान की जाएगी ताकि वर्ष भर के इनके गुजर बसर का प्रबंध हो सके" फाल्गुन माह" में ग्रीष्म ऋतु के आगमन पश्चात जब चैत्र माह अपनी बाहे फैलाये हरियाली से लबरेज घाटियों में खिले रंग बिरंगे फूलों की खुशबू से ऋतु परिवर्तन का उद्घो घोष करता है तो प्रकृति के कण-कण में हर्षोल्लास का विराट भाव अनायास ही वृक्षों की झूलती टहनियों में समाहित हुए परिंदों की चहचहाट के मध्य ढोलरूओं की स्वर लहरी के साथ प्रस्फुटित होकर चारों ओर गुंजायमान होने लगता है ।
यहां यह उल्लेख करना भी आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान में भी ढोलूरू गायन में मौलिक भक्ति रस अथवा भक्तिभाव का अत्यधिक स्थान है । ढोलक की धीमी थाप, पर चैत्र माह का नाम सुनाने के लिए सैकड़ों वर्षों की परंपराओं का यह पीढ़ी दर पीढ़ी का सफर यद्यपि एक दम तोड़ती परंपराओं को कृत्रिम सांसों के साथ आगे बढ़ा रहा है। लेकिन इस परंपरा का अंत न हो जाए इसके लिए आम जनमानस को भी प्राचीन भक्ति भाव की भावनाओं की कदर करनी होगी।
महानुभाव, चैत्र माह के नाम का स्मरण करवाने के लिए अबकी बार जब कोई " ढोलरु" गायन के लिए आपके घर आंगन में पधारे तो आप अवश्य उसे उचित आसन देखकर भक्ति भाव से परिवार सहित उसका गायन सुनने का अवसर मत खो देना।नामालूम अगले वर्षों तक यह मौलिक गायन की परम्परा ,आधुनिक वाद्ययंत्रों और कान फाडु ध्वनि सयंत्रों के शोर में अपने वास्तविक माधुर्य , लयबद्धता सूरीलेपन के मौलिक भाव की धीमी धीमी चलती सांसो का अस्तित्व , प्रोत्साहन और आदर भाव की कमी में कहीं विलुप्त ना हो जाए । कहीं यह ढोलरू गीत माजी की हसीन सुरमयी यादों की भूली बिसरी दास्तां बन कर न रह जाए ।
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